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एक और मोहतरमा का आज हम दिल तोड़ आए,
कह दिया हम इस काबिल नहीं हैं माफ करें…
…
ख़ौफ़ज़दा हैं हम अपनी पहली मोहब्बत से ही,
उसका किया हुआ भी कुछ बताना भी जरूरी है क्या…
हम कर चुके हैं अपने हिस्से की मोहब्बत,
रोज–रोज वही भूल दोहराना जरूरी है क्या…
कभी मुलाकात होतो उन तक मेरा एक शेर पहुँचा देना,
और उसके इश्क़ को भुगता है मैंने ये भी बताना जरूरी है क्या…
अगर फिर भी पूछे तो कह देना अब फिक्र ना करें,
वैसे अधूरी मोहब्बत का सिला बताना जरूरी है क्या…
हाँ वैसे अभी तक मैंने उसको ठीक से कुछ लिखा ही नहीं,
उसकी हकीकत भी कृष्णा क्या बताना बताना जरूरी है यहाँ…
मैंने जो लिखा है उससे मेरे इंतकाल के बाद भी बेकसूर रहोगे,
और भी कुछ वफा की नुमाइश शब्दों में दिखाना जरूरी है क्या..
कृष्णा को माफ कर देना ये आधी कहानी है,
इसके बाद भी पूरी कहानी सुनाना जरूरी है क्या…
क्यों एक उम्र से करते फिर रहे हो,
ये दिखावे की जी हजूरी जरूरी है क्या…
क्यों खामखा झूठे रिश्तो के जंजाल में तुम हो,
ये बेमतलब की रस्म निभा ना जरूरी है क्या…!
तुम कहते हो हम इश्क नहीं समझते,
तुम्हें भी दिल चीरके दिखाना जरूरी है क्या…
किसी के ईमान पर उँगली उठाते हो
बेमतलब तोहमत लगाना जरूरी है क्या…
ये यह हर बार तुम्हें हकीकत का,
एहसास दिलाना जरूरी है क्या…
यह शिकायत है तो शिकायत ही सही,
पर मोहब्बत का दिखावा जरूरी है क्या,
हमने स्वाभिमान को मार कर बचाया था जिस रिश्ते को,
छोड़ो अब उस रिश्ते से भी कोई उम्मीद लगाना जरूरी है क्या…
गुरूर है तो कर लो खोके पछताना भी तो तुम ही को है,
अपने होने का एहसास तुम्हें हर बार कराना जरूरी है क्या…
अब कृष्णा लहजे में ज़हर का एहसास तुम्हारी बदौलत है
इसके बाद भी तुम्हें मुंह से लगाना जरूरी है क्या…!
फिर चले आये हो तुम यहाँ,
बेमतलब आना जरूरी है क्या…
तुम्हें तहजीब नहीं तो खामोश रहा करो,
बेमतलब की तुम्हारी ये बहस जरूरी है क्या…
अपनी गंदी जुबां को बंद रखा करो,
लोगों को सुनाना जरूरी है क्या…
तुम्हें आता नहीं समझ ये तुम्हारी बदकिस्मत है,
आशिकों को पागल बताना जरूरी है क्या…
हम एक दास्ताँ के मशहूर किरदार सही,
और तुम्हारी तो यहां कोई पहचान भी नहीं…
..
तुम्हें और कितना जलील करे अब कृष्णा यहां,
तुम्हें अपने हाल की फजीहत कराना जरूरी है क्या…!
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Beautiful and lovely poem.