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ग़ैरत-ए-इंसान सुन कर पानी-पानी हो गई,
दुश्मनी जब तेरी – मेरी खा़नदानी हो गई !
रख न पाया उम्र भर मैं यार अपना ही ख़्याल,
किस तरह ख़्वाबों की तेरे पासबानी हो गई !
तेरे कूंचे रोज़-रोज़ आता रहा मेहमान-ए-खा़स,
तुमने देखा एक झलक और मेज़बानी हो गई !
जो के डरता था जुदाई से मेरा वो एक शख़्स़,
कैसे मुमकिन उससे अब नकल-ए-मकानी हो गई !
एक चेहरे के कईं चेहरे नज़र आने लगे,
पत्थरों वालों की हम पर मेहरबानी हो गई !
है ज़रूरत आज फिर ऐ ज़िन्दगी कुछ तो सिखा,
चोट जो भी खाई थी वो सब पुरानी हो गई !
जो किताबों से पढ़ी वो याद अब कुछ ना रहा,
वक़्त की हर एक करवट मुँह-ज़बानी हो गई !
बाप बेटे , माँ भी बेटी से , दुखी है आज-कल,
फोन आया, और ये घर-घर की कहानी हो गई !
\’राजा\’ नेे ही अपनी जा़त पर तंज़ ऐसे किए,
पूरी नस्ल ही बगावत कर वैरी हो गई……!!!
(नकल-ए-मकानी- प्रवास
पासबानी- पहरा देने वाला)