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हम सब जानते है की मानव ने आधुनिकता के नाम पर हज़ारों लाखों पेड़ों को काट डाला और पृथ्वी की सुंदरता को तितर बितर कर दिया ! इस आधुनिकता के समय में अब हमें पृथ्वी को बचाने की जरूरत है ! वरना वो समय दूर नहीं जब हम सब की दशा घुट घुट कर मर रहे जानवरों की तरह हो जाएगी आज की कविता मैंने इसी ज़हरीले मानव के ऊपर लिखी है जिसने पूरी पृथ्वी की सुंदरता को निगल लिया है चलिए शुरू करते है
मानव ने ही दंश दिया है अपनी माँ के आँचल पर,
अब भुगत रहीं हैं सारी सृष्टि उसका ही अभिशाप यहाँ।
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ये जो बेजुवान तड़प रहे हैं वस तेरे ही तो कारण है,
तुझको क्या लगता है…की तू इसमे भागीदार नहीं।
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पेड़ का व्यापार करें तू क्या वो माता का भाग नहीं,
तड़प रहा है साँसों को तू क्या ये तेरी औक़ात नहीं।
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काट दिये वन उपवन सारे..सड़क बना विकाश का नाम दिए,
सड़क किनारे लगा के पेड़ फिर चौड़ी के चक्कर में काट दिए.!
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जिस पृथ्वी ने जन्म दिया है उसको तो बर्बाद कर दिया,
मानव की लीला तो देखो अब और ग्रह की ओर चले…!
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